मौन
मंगलवार, 8 सितंबर 2009
बैठ ले कुछ देर,
आओ, एक पथ के पथिक से
प्रिय, अंत और अनंत के,
तम-गहन-जीवन घेर।
मौन मधु हो जाए
भाषा मुकता की आड़ में,
मन सरलता की बाड़ में
जल-बिन्दु-सा बह जाए ।
सरल, अति स्वछंद
जीवन, प्रात के लघु पात से
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप, निर्द्वंद्व ।
सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला "
18 सितंबर 2009 को 6:54 am बजे
अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
19 सितंबर 2009 को 3:26 am बजे
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत और शानदार रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!
12 सितंबर 2010 को 1:43 am बजे
bahut sundar prastuti