कत्ल करके लग रहे वो बेखबर से
मंगलवार, 28 जुलाई 2009
कत्ल करके लग रहे वो बेखबर से
लो हमी अब चल दिए है इस शहर से
सीख कर आए कहाँ से ढंग नया तुम
घर जलाते हो निगाहों के शरर से
आंधिया-दर-आंधिया, हरसू अँधेरा
बन गया माहोल कैसा इक ख़बर से
टुकड़े टुकड़े हो चली है जिन्दगानी
है परेशां आदमी अपने सफर से
लिख रहा है हर किसी का वो मुकद्दर
बच नही पाया कोई उसकी नज़र से
29 जुलाई 2009 को 12:33 am बजे
खूबसूरत ख्यालात का मुजाहिरा किया है आपने अपनी गजल की मार्फ़्त से.
19 सितंबर 2009 को 3:27 am बजे
वाह वाह क्या बात है! बहुत बढ़िया लिखा है आपने!