होंठो पर सजा के अपने वो जो गुनगुना गई मुझको
गुरुवार, 16 जुलाई 2009
होंठो पर सजा के अपने वो जो गुनगुना गई मुझको
इक लफ्ज़ था भुला हुआ ग़ज़ल बना गई मुझको
किस-किस तूफा के बीच से बचा लाया न दिल को अपने
कितनी यकता वो निगाहे हुस्न, जोकि पा गई मुझको
न किसी की याद, कोई खुशी न कोई रंज-ओ-गम
यह किस मुकाम पर हयात ले कर आ गई मुझको
जामे मीना हो की रूखे अख्तर सबसे बचता था इससे पेश्तर
क्या कह दिया यार ने की नसीहत आ गई मुझको
जो लोग पूछते है मुझसे वजूहात दीवानगी की 'साहिर'
देखता हो की इक महजबी की अदा आ हाई मुझको
16 जुलाई 2009 को 3:01 am बजे
Waah ! Waah ! Waah !!! Lajawaab gazal !!! Waah !!