हर तरफ़ है धुआं -धुआं यारो  

शनिवार, 31 जनवरी 2009

हर तरफ़ है धुआं -धुआं यारो
हम जले है कहाँ-कहाँ यारो आए

शाम होते ही याद आते हो
कम हो अब ये दुरिया यारो
हम जले है कहाँ-कहाँ यारो

फल दरख्तों से तोड़ लो ख़ुद ही
जाने कब आए आधिया यारो
हम जले है कहाँ-कहाँ यारो

रात आए तो जाग जाती है
मेरे कमरे की खिड़किया यारो
हम जले है कहाँ-कहाँ यारो

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तुम किसी ख्वाब को आँखों में सजा कर देखो  

शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

तुम किसी ख्वाब को आँखों में सजा कर देखो
तुम किसी आग को सीने में बसा कर देखो

जिंदगी किस कदर फ़िर प्यार करेगी तुमको
तुम किसी शक्स को अपना तो बना कर देखो

दस्तके बहुत दी होंगी तुमने दरवाजों पे
तुम किसी रोज़ इन्हे दीवार पर लगा कर देखो

अर्थ कुछ भी बहादुरों के लिए काँटों का
तुम किसी पाव को काँटों पे चुभा कर देखो

लकीरे रौशनी की खींचेगा दुनिया भर में
तुम किसी दीप को अंधेरो से लड़ाकर देखो

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तेरे खुशबू में बसे ख़त मै जलाता कैसे  

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

तेरे खुशबू में बसे ख़त मै जलाता कैसे
प्यार में डुबे हुए ख़त मै जलाता कैसे
तेरे हाथो के लिखे ख़त में जलाता कैसे
जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाये रखा
जिनको इक उमर कलेजे से लगाये रखा
दीन जिनको, जिन्हें इमान बनाये रखा
तेरे खुशबू में बसे ख़त मै जलाता कैसे
जिनका हर लफ्ज़ मुझे याद था पानी की तरह
याद थे मुझको जो पैगाम--ज़ुबानी की तरह
मुझको प्यारे थे जो अनमोल नीशनी की तरह
तेरे खुशबू में बसे ख़त मै जलाता कैसे
तुने दुनिया की निगाहों से जो बच कर लिखे
सलहा-साल मेरे नाम नाम बराबर लिखे
कभी दिन में तो कभी रात को उठ कर लिखे
तेरे खुशबू में बसे ख़त मै जलाता कैसे
प्यार में डुबे हुए ख़त मै जलाता कैसे
तेरे हाथो के लिखे ख़त में जलाता कैसे
तेरे ख़त आज में गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

में इस ग़ज़ल के बारे में खुक कहना चाहता हूँ लेकिन मेरे
पास अल्फाज़ की कमी है क्योकि इस ग़ज़ल की खूबसूरती
बोल के बया नही की जा सकती आप ख़ुद ही इस का लुत्फ़
लीजिये।

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मेरी प्रिये  

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

तुम्हारी आँखे
वैसी नही
जिन्हें कह सकू नशीली,
तुम्हारी मुस्कान
भी तो सजावटी नही,
तुम्हारे दांत नही है
मोतियों जैसे,
शकल--सूरत से भी
परी नही हो तुम
पर फ़िर भी
सबसे बड़कर है
तुम्हारी भावनाए,
तुम्हारा निर्मल मन,
और
नि : सवार्थ स्नेह,
इसलिए प्रिये
मुझे तुम प्रिये हो,
और यकीं मानो
तुम सबसे सुंदर हो
मेरे लिए

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बिखरे मोती  

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

तुम तो कहते हो तुम्हे मुझसे मोहबत ही नही
फ़िर जुदाई के ख्यालात से डरते क्यो हो
मुझसे ख़ुद आके लिपटना, संभल के हटना
तेज होती हुई बरसात से डरते क्यो हो

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बिखरे मोती  

महसूस तो हो मुझको वफ़ा कितनी बुरी है
दे मेरी खताओं की सज़ा और अभी और
साकी के ये कहने पे की अब जाओ भी घर को
शरमा के ये राही ने कहा और अभी और

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सिलवटो की सिहरन  

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

हैदराबाद से हमारे दोस्त विजय कुमार जी की रचना
अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है...

मेरे हाथ, मेरे दिल की तरह
कापते है जब में
उन सिलवटो को अपने भीतर समेट्ती हूँ ...

तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहां तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था,
में सिहर सिहर जाती हूँ, कोई अजनबी बन कर तुम आते हो
और फ़िर खामोशी को आग लगा जाते हो ...

तेरे जिस्म का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
में चादर तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लू
कई जनम जी लेती हो में तुझे भुलाने में,
पर तेरी मुस्कराहट,
जाने कैसे बहती चली जाती है,
जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है ...

कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे,
कोई माझी, तेरे किनारे मुझे ले जाए,
कोई देवता तुझे फ़िर मेरी मोहबत बना दे ...
या तो तू यहाँ आजा,
या मुझे वहां बुला ले ...

मैंने अपने घर के दरवाजे खुले रख छोडे है ...


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बिखरे मोती  

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

" माना की तेरी दीद के काबिल नही में
तू मेरा शौक देख, तू मेरा इन्तिज़ार देख "

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ग़ज़ल  

जिंदगी के मयकदे में डूब जा फ़िर यार तू
मंजिलो की मुश्किलों को यार कर दुशवार तू

ये नदी, तलब, झरने, ये समंदर की गरज
आब की हर नाव में है आग की पतवार तू

ये किनारे बेहकीकत चूमने तुझको चले
वक्त को जिस पल फतह कर चढ़ गया मझधार तू

ग़ज़ल की अंगडाईया छुने लगी है आसमा
जरे जरे में गया है बिखर बन अशरार तू

यह ग़ज़ल 'उद्भ्रांत' की तू आज होठो से लगा
और बना जा दोस्तों की दुश्मनी को प्यार तू

उद्भ्रांत


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ग़ज़ल  

सोमवार, 19 जनवरी 2009

हमारे बाद भी आदमी यही समझे
जिगर के ज़ख्म को आँखों की रौशनी समझे

हम अपने आप से इन्साफ कर सके कभी
उधर बढ़ा दिया सागर जिधर कमी समझे

ज़मी ने आज भी इक बात आसमा से कही
करीब आओ तो यह फासला कोई समझे

कुछ इस तरह गम--दोंरा के सिलसिले गुजरे
कदम-कदम पे हमें लोग अजनबी समझे

तड़प रहा हूँ में और मुस्करा रहा है कोई
किसी का गाँव जले कोई रौशनी समझे

लिए है वक्त ने क्या-क्या इम्तिहान लेकिन
हरेक हाल में हम खुदा को आदमी समझे

खिला जो फूल वो कुछ देर बाद टूट गया
इस ऐतेबार को हम रस्म--जिंदगी समझे

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ग़ज़ल  

रविवार, 18 जनवरी 2009

देने पर गम जो आए, तो इतना दिया मुझे
एक कतरा चाहिए था पर दरिया दिया मुझे

दिल लेके इश्क में मेरा धोखा दिया मुझको
अफ़सोस तुमने क्या लिया पर क्या दिया मुझे

ये दर्द, ये सितम जो लिखे थे मेरे नसीब में
फ़िर पत्थर का दिल क्यो नही दे दिया मुझे

तेरी नही थी जब याद, शब्--गम तो कौन था
किसने तमाम रात फ़िर दिलासा दिया मुझे

अब तो किसी से कोई शिकवा नही ' कैलाश ' को
सच पूछिए तो दिल ने ही दगा दिया मुझे

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ग़ज़ल  

कब्र तक हमने सब का साथ निभाया
जब परखा तो ख़ुद को अकेला पाया

हर कोई था मगन अपनी ही धुन में
सुना किसी ने जब हमने बुलाया

कहने को थे वो सभी हमारे अपने
वक्त पड़ा कोई भी काम आया

हर इन्सान है मतलबी इस जहां में
हर किसी को हमने है आजमाया

मेरे हर ज़ख्म पर हसती रही दुनिया
हर गम को उसने हसी में उडाया

मिल पाई कभी छ्त और जमी
हम है वही जिसने सब कुछ लुटाया

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ग़ज़ल  

शनिवार, 17 जनवरी 2009

प्यास के पल शुमार मत करना
मन की नदिया को पा मत करना
रात के घर बहुत है राहों में
तू अंधेरो से प्यार मत करना
दुःख की गंगा का कापता जल हूँ
मेरी खातिर सिंगार मत करना
में हूँ दर्दो के देश का वासी
राहतो ! मुझसे प्यार मत करना
यह शहर हादसों का आदी है
बेवजह जानिसार मत करना
संगदिल वक्त की नसीहत है
इन्तजारे बहार मत करना
घुट लेना हृढ्य का हर आंसू
नैन भी राजदार मत करना
दूध माँ का जहां लजाता हो
राह वो इक्तियार मत करना
' सारथी ' ज़ख्म को हरा रखना
प्रेम को दागदार मत करना

"आचर्य सारथी "

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ग़ज़ल  

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

पैर टूटे लाठियों से
हम चले बैसाखियो से
तंग आता जा रहा हूँ
आपकी गुस्ताखियो से
पृष्ठ तो पुरा तुम्हारा
हम बचे है हाशियों से
पर ही पाना कठिन है
आपकी चालाकियों से
शहर में जंगल छुपा है
हम जिए सन्यासियों से
बात करते हो शहर की
मान्यवर ! देहातियों से

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ग़ज़ल  

कितने बेमानी से लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
सागर का पानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
मौसम और सर्द हो जाता है इनकी गरमाई से
कितने बर्फानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
भूखे पेटो पर इनके पंडाल सजाये जाते है
फ़िर भी इंसानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
ताजमहल की तरह गरीबो की आँखों में चुभते से
शाही नादानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
वरद हस्त और नेक इरादों, दूध धूलि सजन्ता की
निर्दय शेतानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
" बुडे बाबा " की मजार की ईंट ईंट को कंपा गए
कितने तूफानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
करते है बदचलन आंकडे यहाँ ठिठोली पीडा से
बिल्कुल सुल्तानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे

" राधेशयाम शुकल "

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मेरा अपना तजुर्बा है इसे सबको बता देना
हिदायत से तो अच्छा है किसी को मशवरा देना
अभी हम है हमारे बाद भी होंगी हमारी बात
कभी मुमकिन नही होता किसी को भी मिटा देना
नई दुनिया बनानी है नई दुनिया बसायेगे
सितम की उमर छोटी है जरा उनको बता देना
अगर कुछ भी जले अपना बड़ी तकलीफ होती है
बहुत असान होता है किसी का घर जला देना
मेरी हर बात पर कुछ देर तो वो चुप ही रहता है
मुझे मुश्किल में रखता है फ़िर उसका मुस्करा देना
' तुषार ' अच्छा है अपनी बात को हम ख़ुद ही निपटा ले
ज़माने की आदत है सिर्फ़ शोलो को हवा देना

" तुषार "

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ग़ज़ल  

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

तू भोला है, लूट जाएगा, पागलपन की बात कर
तेरा मन हो या फ़िर कंचन आभूषण की बात कर
रिमझिम बूंदे, तीज मखमली, रेशमी गीतों वाले झूले
गए दिनों की यादे है अब उस सावन की बात कर
तेरी आँखों में है अशर्फी, हाथो में नीलाम कलम
पाहन बंधे हुए पंखो से खुले गगन की बात कर
अब तो अपनों के ही हाथो में गर्दन है खैर नही
तुझे छाव में डाल जाए जो उस दुश्मन की बात कर
प्रतिबिम्बों की इस दुनिया में असल नक़ल का भेद किसे
चिडिया चोंच तुडा बैठैगी तू दर्पण की बात कर
नए विधानों की सूची में सोचना भी संगीन जुर्म है
सूली चडा दिया जाएगा नव-चिंतन की बात कर

राज गोपाल सिंह

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