ग़ज़ल  

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

उमर भर करती रही यूं मसखरी सी जिंदगी
जिस तरफ़ देखा, दिखाइ दी डरी सी जिंदगी
काश ! हो जाती मयसर चाँद सांसे ठीक सी
हम भी कह देते की होती है परी सी जिंदगी
हर लम्हा, हर शेर में लिख लिख इसे गया मगर
हो नही पाई कभी भी शायरी सी जिंदगी
नाम लेने से बहारो का, महक सकती नही
फूल की मानिंद पतझर में झरी सी जिंदगी
क्या कहे ख़ुद को की सोने की चिरैया को जला
रख में ढूँढा किए हम सुनहरी-सी जिंदगी
इक हथेली जब किसी तलवार सी उठे तो फ़िर
क्या जिए दूजी हथेली पर धरी सी जिंदगी

" सत्यपाल स्नेही"

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