ग़ज़ल  

सोमवार, 12 जनवरी 2009

गिरेबा चाक किए फिर रहा हूँ गुलशन में
गुलो की शाख से बिछडा हुआ गुलाब हूँ में
बाहर रूठ गई इक फरेब दे के मुझे
मुझे देखो की उजड़ा हुआ खवाब हूँ में
हम अहल--वहा हुस्न को रुसवा नही करते
परदा भी उठे तो देखा नही करते
कर लेते है दिल अपना तस्वुर से ही रोशन
मागो के चिरागू से उजाला नही करते
बना बना के क्यो दुनिया मिटाई जाती है
जरूर कोई कमी है जो पाई जाती है
जब अजनबी कोई आता है उनकी महफिल में
तो एक शमा उसी दम जलाई जाती है
जला के शमा वो फ़ौरन बुझा भी देते है
धुए की सिम्तो पे फ़िर ऊँगली उठाई जाती है
धुआ दिखा के वो कहते है आने वालो से की
आशिको की ये हालत बनाई जाती है
वो सर खोले हमारी लाश पे दीवानावार आए
इसी को मौत कहते है तो या रब ये बार बार आए
पहले तो पिस पिस कर सुरमा मेरा बना दिया
मुझे मौत दी की हयात दी ये नही सवाल की क्या दिया
तेरी निगाह--नाज़ ने कोई फ़ैसला तो सुना दिया
मेरे घर की शमा गवाह है कटी रात किस पशो पेश में
कभी आह की, कभी ख़त लिखा, कभी ख़त को लिख के जला दिया
आकर हमारी कब्र पर तुमने जो मुस्करा दिया
बिजली लपक के गिर पड़ी सारा कफ़न जला दिया
आए हो हाल पूछने जब खाक में मिला दिया
आकर हमारी कब्र .............................
झोपडे में फ़कीर के इस के सिवा रखा है क्या
फर्श--नज़र बिछा दिया तकिया--दिल लगा दिया
आकर हमारी कब्र .................................
मेरा तुम्हारा फ़ैसला होगा खुदा के सामने
तुमने जो तेब खीच ली मैंने भी सर झुका दिया
आकर हमारी कब्र .......................................
जाओ सिधारो मेरी ज़ा
तुम पर हो खुदा की अमा
बिछडे हुए मिलेंगे फिर किस्मत ने गर मिला दिया
आकर हमारी कब्र ...................................

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