सिलवटो की सिहरन  

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

हैदराबाद से हमारे दोस्त विजय कुमार जी की रचना
अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है...

मेरे हाथ, मेरे दिल की तरह
कापते है जब में
उन सिलवटो को अपने भीतर समेट्ती हूँ ...

तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहां तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था,
में सिहर सिहर जाती हूँ, कोई अजनबी बन कर तुम आते हो
और फ़िर खामोशी को आग लगा जाते हो ...

तेरे जिस्म का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
में चादर तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लू
कई जनम जी लेती हो में तुझे भुलाने में,
पर तेरी मुस्कराहट,
जाने कैसे बहती चली जाती है,
जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है ...

कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे,
कोई माझी, तेरे किनारे मुझे ले जाए,
कोई देवता तुझे फ़िर मेरी मोहबत बना दे ...
या तो तू यहाँ आजा,
या मुझे वहां बुला ले ...

मैंने अपने घर के दरवाजे खुले रख छोडे है ...


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