ग़ज़ल
रविवार, 18 जनवरी 2009
कब्र तक हमने सब का साथ निभाया
जब परखा तो ख़ुद को अकेला पाया
हर कोई था मगन अपनी ही धुन में
न सुना किसी ने जब हमने बुलाया
कहने को थे वो सभी हमारे अपने
वक्त पड़ा कोई भी काम न आया
हर इन्सान है मतलबी इस जहां में
हर किसी को हमने है आजमाया
मेरे हर ज़ख्म पर हसती रही दुनिया
हर गम को उसने हसी में उडाया
न मिल पाई कभी छ्त और जमी
हम है वही जिसने सब कुछ लुटाया
18 जनवरी 2009 को 2:32 am बजे
kehne kothe vosabhihamare apne
vakt padaa koi bhi kaam na aya
kya khUb kaha hai
18 जनवरी 2009 को 3:17 am बजे
कहने को थे वो सभी हमारे अपने
वक्त पड़ा कोई भी काम न आया
bahut sundar bhaav hain.
aap ne mera Sujhaav maan liya..yah achchey blogger ke sign hain :)-..all the best--shubhkamnayen aap ke saath hain.
18 जनवरी 2009 को 6:01 am बजे
न मिल पाई कभी छ्त और जमी
हम है वही जिसने सब कुछ लुटाया
--बहुत बढ़िया पंक्तियाँ.
18 जनवरी 2009 को 9:31 am बजे
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने...सच है मुश्किल में अपने काम नहीं आते...इस बात को बखूबी कहा है अपने शेर में...वाह....
नीरज