ग़ज़ल  

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

कितने बेमानी से लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
सागर का पानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
मौसम और सर्द हो जाता है इनकी गरमाई से
कितने बर्फानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
भूखे पेटो पर इनके पंडाल सजाये जाते है
फ़िर भी इंसानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
ताजमहल की तरह गरीबो की आँखों में चुभते से
शाही नादानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
वरद हस्त और नेक इरादों, दूध धूलि सजन्ता की
निर्दय शेतानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
" बुडे बाबा " की मजार की ईंट ईंट को कंपा गए
कितने तूफानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे
करते है बदचलन आंकडे यहाँ ठिठोली पीडा से
बिल्कुल सुल्तानी लगते है, रोज़ रोज़ के ये जलसे

" राधेशयाम शुकल "

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