ग़ज़ल  

बुधवार, 14 जनवरी 2009

एक टुकडा ही सही आसमा मेरा भी था
उन दिनों की बात है जब ये जहां मेरा भी था
मुझको आदत ही नही थी ठरेअने की एक जगह
वरना तिनको का ही सही आशिया मेरा भी था
वो बूझाए मै जलू कशमकश दोनों में थी
इम्तिहा उसका तो था ही इम्तिहा मेरा भी था
बोलता है बोलिया जो सैकडो अंदाज़ में
वो परिंदा अरसा पहले हमजुबा मेरा भी था
ढ्ढ्ने वालो के नक्शे पा मिले जिस रेत पर
गौर से देखा तो उसपे एक निशा मेरा भी था
आग दोनों ही तरफ़ थी और डर था ये मुझे
उस धधकती आग के घर दरमिया मेरा भी था
बेखुदी में उमर मैंने जब अकेले काट ली
तब लगा कोई कोई मेहरबान मेरा भी था

" सुरेंदर चतुर्वेदी "

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