ग़ज़ल
मंगलवार, 20 जनवरी 2009
जिंदगी के मयकदे में डूब जा फ़िर यार तू
मंजिलो की मुश्किलों को यार कर दुशवार तू
ये नदी, तलब, झरने, ये समंदर की गरज
आब की हर नाव में है आग की पतवार तू
ये किनारे बेहकीकत चूमने तुझको चले
वक्त को जिस पल फतह कर चढ़ गया मझधार तू
ग़ज़ल की अंगडाईया छुने लगी है आसमा
जरे जरे में गया है बिखर बन अशरार तू
यह ग़ज़ल 'उद्भ्रांत' की तू आज होठो से लगा
और बना जा दोस्तों की दुश्मनी को प्यार तू
उद्भ्रांत
20 जनवरी 2009 को 2:53 am बजे
sundar abhiviyakti hai
20 जनवरी 2009 को 7:48 am बजे
bahut khoob janab...waah
neeraj