ग़ज़ल  

सोमवार, 19 जनवरी 2009

हमारे बाद भी आदमी यही समझे
जिगर के ज़ख्म को आँखों की रौशनी समझे

हम अपने आप से इन्साफ कर सके कभी
उधर बढ़ा दिया सागर जिधर कमी समझे

ज़मी ने आज भी इक बात आसमा से कही
करीब आओ तो यह फासला कोई समझे

कुछ इस तरह गम--दोंरा के सिलसिले गुजरे
कदम-कदम पे हमें लोग अजनबी समझे

तड़प रहा हूँ में और मुस्करा रहा है कोई
किसी का गाँव जले कोई रौशनी समझे

लिए है वक्त ने क्या-क्या इम्तिहान लेकिन
हरेक हाल में हम खुदा को आदमी समझे

खिला जो फूल वो कुछ देर बाद टूट गया
इस ऐतेबार को हम रस्म--जिंदगी समझे

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2 टिप्पणियाँ: to “ ग़ज़ल

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