ग़ज़ल
सोमवार, 19 जनवरी 2009
हमारे बाद भी आदमी यही समझे
जिगर के ज़ख्म को आँखों की रौशनी समझे
हम अपने आप से इन्साफ कर सके न कभी
उधर बढ़ा दिया सागर जिधर कमी समझे
ज़मी ने आज भी इक बात आसमा से कही
करीब आओ तो यह फासला कोई समझे
कुछ इस तरह गम-ऐ-दोंरा के सिलसिले गुजरे
कदम-कदम पे हमें लोग अजनबी समझे
तड़प रहा हूँ में और मुस्करा रहा है कोई
किसी का गाँव जले कोई रौशनी समझे
लिए है वक्त ने क्या-क्या न इम्तिहान लेकिन
हरेक हाल में हम खुदा को आदमी समझे
खिला जो फूल वो कुछ देर बाद टूट गया
इस ऐतेबार को हम रस्म-ऐ-जिंदगी समझे
19 जनवरी 2009 को 3:03 am बजे
कुछ इस तरह गम-ए-दौराँ के सिलसिले गुज़रे
क़दम-क़दम पे हमें लोग अजनबी समझे
क्या ख़ूब कह गए आप। अच्छी ग़ज़ल।
19 जनवरी 2009 को 5:34 am बजे
वाह ! Bhaavpoorn सुंदर Gazal है. बधाई.