मौन  

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

बैठ ले कुछ देर,
आओ, एक पथ के पथिक से
प्रिय, अंत और अनंत के,
तम-गहन-जीवन घेर

मौन मधु हो जाए
भाषा मुकता की आड़ में,
मन सरलता की बाड़ में
जल-बिन्दु-सा बह जाए

सरल, अति स्वछंद
जीवन, प्रात के लघु पात से
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप, निर्द्वंद्व

सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला "

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कत्ल करके लग रहे वो बेखबर से  

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

कत्ल करके लग रहे वो बेखबर से
लो हमी अब चल दिए है इस शहर से

सीख कर आए कहाँ से ढंग नया तुम
घर जलाते हो निगाहों के शरर से

आंधिया-दर-आंधिया, हरसू अँधेरा
बन गया माहोल कैसा इक ख़बर से

टुकड़े टुकड़े हो चली है जिन्दगानी
है परेशां आदमी अपने सफर से

लिख रहा है हर किसी का वो मुकद्दर
बच नही पाया कोई उसकी नज़र से

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सारे माहौल को जाने क्या हो गया  

सोमवार, 27 जुलाई 2009

सारे माहौल को जाने क्या हो गया
जिंदा रहना भी अब तो सज़ा हो गया

एक मगरूर तारा बहुत दिन हुए
आसमानों से गिर कर फ़ना हो गया

अब किनारों के मिलने की उम्मीद क्या
दोनों जानब बड़ा फासला हो गया

रात भर खेमा--दिल में हलचल रही
जाने बस्ती में क्या हादसा हो गया

सारी दुनिया में जब उसका कोई नही
वो मेरा हो गया तो क्या हो गया

ठोकरे खाते खाते हर इक गाम पर
अब तो 'महक' उसको होसला हो गया

यासमीन महक

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रहनुमा साथ छोड़ देता है  

रहनुमा साथ छोड़ देता है
रास्ता साथ छोड़ता ही नही

नई तहजीब में पला बच्चा
अब खिलोनो से खेलता ही नही

सब की आखो में अश्क भर आए
इक मेरा दर्द बोलता ही नही

धुंधले चेहरों का उफ़ घना जंगल
बच निकलने का रास्ता ही नही

इखतलाफात दूर हो कैसे
वो मेरी तरह सोचता ही नही

यासमीन महक

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आपसे प्यार होता जाता है  

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

आपसे प्यार होता जाता है
कम दुश्वार होता जाता है

अक्ल करती है जितनी तदबीरे
इश्क बीमार होता जाता है

कोई लग्जिश यार हो जाए
शौक आजार होता जाता है

जिस कदर हाल--दिल छुपाते है
साफ इज़हार होता जाता है

ज़ख्म--एहसास की खलिश से 'अदम'
फूल भी खर होता जाता है

अब्दूल हमीद 'अदम'

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डूबते तारो ने क्या-क्या रंग दिखलाये हमें  

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

डूबते तारो ने क्या-क्या रंग दिखलाये हमें
कुछ पुराने नक्श जो रह-रह के याद आए हमें

किस में जुर्रत है की उतरे पानियों की दरमिया
किस को ख्वाहिश है जो अब के रह पर लाये हमें

हम यह क्या जाने की क्यो सब्रो सको जाता रहा
तू जो इक दिन पास बैठे तो समझाए हमें

रात भर छ्त पर हमें तारे सदा देते रहे
रात भर कमरे में इक परछाई दहलाए हमें

ख्वाब में डूबे तो फ़िर पाया कुछ अपना सुराग
किस को फुर्सत है जो 'पाशी' ढूँढने आए हमें

कुमार पाशी

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होंठो पर सजा के अपने वो जो गुनगुना गई मुझको  

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

होंठो पर सजा के अपने वो जो गुनगुना गई मुझको
इक लफ्ज़ था भुला हुआ ग़ज़ल बना गई मुझको

किस-किस तूफा के बीच से बचा लाया दिल को अपने
कितनी यकता वो निगाहे हुस्न, जोकि पा गई मुझको

किसी की याद, कोई खुशी कोई रंज--गम
यह किस मुकाम पर हयात ले कर गई मुझको

जामे मीना हो की रूखे अख्तर सबसे बचता था इससे पेश्तर
क्या कह दिया यार ने की नसीहत गई मुझको

जो लोग पूछते है मुझसे वजूहात दीवानगी की 'साहिर'
देखता हो की इक महजबी की अदा हाई मुझको

साहिर अम्बालवी

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अब आँखों में नही सैलाब कोई  

बुधवार, 15 जुलाई 2009

अब आँखों में नही सैलाब कोई
मुझे लौटा दे मेरे ख्वाब कोई

अजब मजबूरिया थी चुप रही मै
मुझे करता रहा आदाब कोई

मै तूफानों से बचना चाहती थी
मगर दरिया था पायाब कोई

नसीम निकहत

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बिखरे मोती  

सोमवार, 13 जुलाई 2009

कभी करीब कभी दूर हो के रोते है
मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते है

अजहर इनायती

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यही नही की सदाए लगा के देखते है  

यही नही की सदाए लगा के देखते है
कुए में कौन है पत्थर हटा के देखते है

गुलाम अब हवेली से आयेगे लेकिन
हुजुर अब भी ताली बजा के देखते है

अजाफा होता है कितना हमारी इज्ज़त में
रईस--शहर को घर पर बुला कर देखते है

अजहर इनायती

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फ़िर अजनबी फिजाओ से जोड़ा गया मुझे  

फ़िर अजनबी फिजाओ से जोड़ा गया मुझे
मै फूल थी जो शाख से तोडा गया मुझे

मिटटी के बर्तनों की तरह साडी जिंदगी
तोडा गया मुझे कभी जोड़ा गया मुझे

हाथो में सौप कर मेरे कागज़ की एक नाव
दरिया के तेज़ धार पर छोडा गया मुझे

खुशबू की तरह जीना भी आसान तो नही
फूलो से कतरा-कतरा निचोडा गया मुझे

मै ऐसी शाख थी जो लचकती थी कभी
फूलो का बोझ डाल कर मोडा गया मुझे

मुदत के बाद आँख लगी थी मगर 'नसीम'
ख्वाबो में सारी रात झिंझोडा गया मुझे

नसीम निकहत

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कही ऐसा न हो दामन जला लो  

कही ऐसा हो दामन जला लो
हमारे आसूओं पर खाक डालो

मानना भी ज़रूरी है तो फ़िर तुम
हमें सब से खफा हो के माना लो

बहुत रोई हुई लगती है ये आँखे
मेरी खातिर ज़रा काजल लगा लो

अकेलेपन से खौफ़ आता है मुझको
कहाँ हो मेरे ख्वाबो खयालो

बहुत मायूस बैठा हु मै तुमसे
कभी आकर मुझे हैरत में डालो

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चाँद है अफताब है यह लोग  

शनिवार, 11 जुलाई 2009

चाँद है अफताब है यह लोग
जिंदगी का निसाब है यह लोग

देख इनकी दराज जुल्फों को
रहमतों का सहाब है यह लोग

ऐसे चलते है जिस तरह चश्मे
जमजमे है, ख्वाब है यह लोग

लोग और इतने गुलबदन तौबा
क्या सराया गुलाब है यह लोग

लोग और वाकई हसी इतने
वाकिया है की ख्वाब है यह लोग

अदम

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ज़ख्मो को न आँचल से हवा दो  

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

ज़ख्मो को आँचल से हवा दो
गर कुछ दे सकते हो वफ़ा दो

गरीब के बीमार बच्चे को
रोटी दो की दवा दो

बेशर्म हो चली जिंदगी पर
रहम करो रहनुमाओ, हया दो

तानाशाही में कुचलते आदमी को
हा ! आम आदमी को जुबा दो

विद्रोह कर उठे जुलम के खिलाफ
उसे हिम्मत दो की सज़ा दो

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जो यह शर्ते-तालुक है की है हम को जुदा रहना  

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

जो यह शर्ते-तालुक है की है हम को जुदा रहना
तो ख्वाबो में भी क्यो आओ, खयालो में भी क्या रहना

शज़र ज़ख्मी उम्मीदों की अभी तक लहलहाते है
इन्हे पतझड़ के मौसम में भी आता है हरा रहना

पुराने ख्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुकदर खुशक पतों का है शाखों से जुदा रहना

अजब क्या है अगर 'मखमूर' तुम पर यू रशे-गम है
हवाओ की तो आदत है चिरागों से खफा रहना

मखमूर सय्य्दी

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अबादतो की तरह मै यह काम करता हूँ  

अबादतो की तरह मै यह काम करता हूँ
मेरा उसूल है पहले सलाम करता हूँ

मखालफत से मेरी शख्सियत सवरती है
मै दुश्मनों का बड़ा एहेतराम करता हूँ

मै अपनी जेब में अपना पता नही रखता
सफर में सिर्फ़ यही एह्तमाम करता हूँ

मै डर गया हूँ बहुत सायादार पेडो से
ज़रा सी धुप बिछा कर कयाम करता हूँ

मुझे खुदा ने ग़ज़ल का दयार बख्शा है
यह सल्तनत मै मोहब्बत के नाम करता हूँ

डा. बशीर बदर

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डूब गई जिंदगी क्यो ज़हर में  

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

डूब गई जिंदगी क्यो ज़हर में
होता कोई अपना इस शहर में

चांदनी के पंख कट गए होंगे
इतना अँधेरा था इस दहर में

यह मौसम पगला गया कैसे
धुल एक भी नही इस शज़र में

सर पिटती रही होंगी हवाए
डूब गया सितारा किस नज़र में

यह अचानक कारवा को क्या हुआ
रोने की बात थी इस सफर में

कटेगा कैसे यह अँधेरा दोस्तों
चाँद छोड़ गया बिच डगर में

अशोक प्लेटो

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मुझको उस शाखे गुल से प्यार नही  

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

मुझको उस शाखे गुल से प्यार नही
जिस पे बस गुल ही गुल हो खार नही

मौत का ऐतबार है मुझको
जिंदगी तेरा ऐतबार नही

दोस्त दुश्मन सभी तो छोड़ गए
अब किसी का भी इन्तिज़ार नही

रुसवा हो जाता वरना दुनिया में
बच गया कोई राजदार नही

कट ही जायेगी जिंदगी अश्क
गम कर कोई गम गुसार नही

अश्क अम्बालवी

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वह जान के भी अनजान बना रहा  

वह जान के भी अनजान बना रहा
दिलो का फासला सुनसान बना रहा

कितना जाहिल निकला मेरा दोस्त
रकीब के घर मेहमान बना रहा

यह कैसी मोहबत है अजनबी
ज़ख्म भर गया निशान बना रहा

सैलाब में डूब गया शहर लेकिन
पत्थर का बुत भगवान बना रहा

लुना इच्छरा पूरण भगत
ख्वाब फ़िर भी सलवान बना रहा

अशोक प्लेटो

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कैसे कैसे हादसे सहते रहे  

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

कैसे कैसे हादसे सहते रहे
फ़िर भी जीते रहे हसते रहे

उसके जाने की उम्मीदे लिए
रास्ता मुड-मुड के हम तकते रहे

वक्त तो गुजरा मगर कुछ इस तरह
हम चिरागों की तरह जलते रहे

कितने चेहरे थे हमारे आस-पास
तुम ही तुम दिल में मगर बसते रहे


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या तो मिट जाइये या मिटा दीजिये  

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

या तो मिट जाइये या मिटा दीजिये
कीजिये जब भी सौदा खरा कीजिये

अब जफा कीजिये या वफ़ा कीजिये
आखिरी वक्त है बस दुआ कीजिये

अपने चेहरे से जुल्फे हटा दीजिये
और फ़िर चाँद का सामना कीजिये

हर तरफ़ फूल ही फूल खिल जायेगे
आप ऐसे ही हसते रहा कीजिये

आप की ये हसी जैसे घुंघरू बजे
और क़यामत है क्या ये बता दीजिये

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दोस्ती जब किसी से की जाए, दुश्मनों की भी राय ली जाए  

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए

मौत का ज़हर है फिजाओ में
अब कहा जाके साँस ली जाए

बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ
ये नदी कैसे पर की जाए

मेरे माजी के ज़ख्म भरने लगे
आज फ़िर कोई भूल की जाए

बोतले खोल के तो पी बरसो
आज दिल खोल के पी जाए

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चेहरों पर चेहरे लगाते है लोग  

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

चेहरों पर चेहरे लगाते है लोग
हस कर गम को छिपाते है लोग

मिलने-जुलने वालो की भीड़ में
कुछ ही साथ निभाते है लोग

सुकून देते है जो साथ रह कर
जाने पर कसक दे जाते है लोग

जिक्र जब होता है बीते लम्हों का
याद बहुत आते है लोग

ग़ज़ल में ढाली है हकीकत ' सर ' ने
तभी तो बहुत सरते है लोग

नाहादिया सर

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तनहा चला हूँ मै रहगुज़र में  

तनहा चला हूँ मै रहगुज़र में
भटक जाऊ कही सफर में

दिल चिराग बन के जला है
अब तो चले आओ मेरे घर में

कोई सुने फरियाद मेरी
पत्थर ही मिले है तेरे शहर में

कहते हो तुम की खुदा याद रखू
तुम ही खुदा हो मेरी नज़र में

गुलो की थी उम्मीद उससे ' दयाल '
खर बिखेर दिए जिसने डगर में

राम दयाल

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धुप छ्त पर जब चडी होगी  

रविवार, 5 अप्रैल 2009

धुप छ्त पर जब चडी होगी
चांदनी पिछवाडे खड़ी होगी

झिलमिला उठी अँधेरी रात
हाथ बच्चे के फुलझडी होगी

पहाडी रात को दौड़ गई
आँख चाँद से जा लड़ी होगी

गाड़ी सिग्नल पर खड़ी होगी
कैसी इन्तिज़ार की घड़ी होगी

अशोक प्लेटो

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ऐ बशर ! ऐ बशर ! ऐ बशर !  

बशर ! बशर ! बशर !
काम कर, काम कर,काम कर

बे खतर , बे खतर. बे खतर
बे समर, बे समर, बे समर,

खौफ है तुझको किस बात का ?
खाक है ये सरापा
तेरा

असलियत है तेरी आत्मा
मौत से जो न होगी फ़ना

जिगर जालंधरी

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आदमी आदमी को क्या देगा  

मंगलवार, 31 मार्च 2009

आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा इसे खुदा देगा

जितना देगा तू उसके बन्दों को
वो तुम्हे उससे भी सवा देगा

जब दुआ में तेरी असर ही नही
बद्दुआ तू किसी को क्या देगा

दाग कितने है तेरे चेहरे पर
आइना देख सब दिखा देगा

छोड़ कर मुझको इतना खुश हो
उमर भर दुःख ये हादिसा देगा

जिंदगी दी है जिसने 'अश्क' मुझे
जीने का भी वो हौसला देगा

अश्क अम्बालवी

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बाहर से यारी भीतर मनमुटाव है  

शनिवार, 28 मार्च 2009

बाहर से यारी भीतर मनमुटाव है
यहाँ के चलन का अजब रख-रखाव है

छोड़ जाए महफिल तो भूल जाते है लोग
अपनों का अपनों पर ऐसा ही घाव है

अनेको तूफान तो सतह पर खामोश है
समंदर में लगता बहुत गहरा तनाव है

तन्हा हुए इश्क में दुनिया से बेखबर
ठोकरे खाई बेशुमार फ़िर भी झुकाव है

जितना भी सहा जाए उतना ही मज़ा आए
ऐसे मेरे कातिल का मुझ पर कसाव है

सांसो की आंच पकती ही जाती है बेखबर
सीने में जैसे मेरे कोई जलता अलाव है

भोला वाघमरे

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ये आलम शौक का देखा न जाए  

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ये आलम शौक का देखा जाए
वो बुत है या खुदा देखा जाए

ये मेरे साथ कैसी रौशनी है
के मुझसे रास्ता देखा जाए

ये किन नजरो से तुने आज देखा
की तेरा देखना देखा जाए

हमेशा के लिए मुझसे बिछ्डा जा
ये मंज़र बारहा देखा जाए

ग़लत है जो सुना, पर आजमा कर
तुझे बेवफा देखा जाए

ये महरूमी वही पासे-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा जाए

यही तो आशना बनते है आख़िर
कोई आशना देखा जाए

फ़राज़ अपने सिवा कौन है तेरा
तुझे तुझ से जुदा देखा जाए

अहमद फ़राज़

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मायूस हो तेरी महफिल से कोई फ़िर गया  

गुरुवार, 26 मार्च 2009

मायूस हो तेरी महफिल से कोई फ़िर गया
रात के आँचल से एक सितारा झर गया

एक लम्हे के लिए उमर भर बैठा रहा
और फ़िर वो शख्स जाने किधर गया

तमाम रास्ते दौड़ता अकेला कम्बखत
दरिया पहाड़ छोड़ सीधा समंदर गया

चोगान में आग बुझाये बैठा है काफिला
रास्ता जिसका सेहरा की रेत से भर गया

' प्लेटो ' पूछता रहा उससे पता अपना
बुलबुल बोली ' जिप्सी भी कभी घर गया '

अशोक प्लेटो

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बाहर से मुझे नफरत थी, पर दिल में मेरे बसता था  

बाहर से मुझे नफरत थी, पर दिल में मेरे बसता था
वो पागल - सा इक लड़का, जो देख के मुझको हसता था

क्यो ठुकराया मांग को उसकी, सोच के अब पछताती हूँ
दिल के बदले दिल माँगा था, सोदा कितना सस्ता था

किस्से पूछू कैसे पूछू, क्यों नही देता अब वो दिखाई
रोज़ गुजरता था वो इधर से, उसका ये ही रस्ता था

तुमने छोड़ा मुझको मैंने शहर तुम्हारा छोड़ दिया
घूरती थी हर शक्स की नज़रे, हर कोई मुझ पर हसता था

दर्द छुपाकर जीना उसकी, 'अश्क' पुरानी आदत थी
भीतर-भीतर रोता था वो, बाहर-बाहर हसता था

अश्क अम्बालवी

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जिंदा लबो पे ये ताले कैसे  

बुधवार, 25 मार्च 2009

जिंदा लबो पे ये ताले कैसे
ये जलसा गुंगो के हवाले कैसे

चोटी तक पहुचा ज़हर तो एहसास हुआ
ये साँप आस्तीन में हमने पाले कैसे

घर से नही निकले जो लोग अभी तलक
ताज्जुब है उनके पैरो में छाले कैसे

जूते और टोपी में ताल्लुक ठीक नही
कोई शख्स इरादों को संभाले कैसे

सिक्के के दोनों पहलू एक ही जैसे है
हवाओ में इसको कोई उछाले कैसे

सुना है फुटपाथ पे खुदा सोता है
इस सहर में मस्जिद ये शिवाले कैसे

सनम दहिया

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