वह जान के भी अनजान बना रहा
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
वह जान के भी अनजान बना रहा
दिलो का फासला सुनसान बना रहा
कितना जाहिल निकला मेरा दोस्त
रकीब के घर मेहमान बना रहा
यह कैसी मोहबत है अजनबी
ज़ख्म भर गया निशान बना रहा
सैलाब में डूब गया शहर लेकिन
पत्थर का बुत भगवान बना रहा
न लुना न इच्छरा न पूरण भगत
ख्वाब फ़िर भी सलवान बना रहा
अशोक प्लेटो
0 टिप्पणियाँ: to “ वह जान के भी अनजान बना रहा ”
एक टिप्पणी भेजें