बाहर से यारी भीतर मनमुटाव है
शनिवार, 28 मार्च 2009
बाहर से यारी भीतर मनमुटाव है
यहाँ के चलन का अजब रख-रखाव है
छोड़ जाए महफिल तो भूल जाते है लोग
अपनों का अपनों पर ऐसा ही घाव है
अनेको तूफान तो सतह पर खामोश है
समंदर में लगता बहुत गहरा तनाव है
तन्हा हुए इश्क में दुनिया से बेखबर
ठोकरे खाई बेशुमार फ़िर भी झुकाव है
जितना भी सहा जाए उतना ही मज़ा आए
ऐसे मेरे कातिल का मुझ पर कसाव है
सांसो की आंच पकती ही जाती है बेखबर
सीने में जैसे मेरे कोई जलता अलाव है
भोला वाघमरे
28 मार्च 2009 को 5:24 am बजे
Waah !!! Bahut bahut sundar gazal...
28 मार्च 2009 को 7:08 am बजे
अनेको तूफान तो सतह पर खामोश है
समंदर में लगता बहुत गहरा तनाव है
बहुत दमदार रचना है....उम्दा दृष्टिकोण ....
waah waah