हर तरफ़ आह आह है जैसे  

बुधवार, 18 मार्च 2009

हर तरफ़ आह आह है जैसे
ये जहां कत्लगाह है जैसे

अब सदाकत गुनाह है जैसे
झूठ से ही निबाह है जैसे

इश्क की इब्तिदा में ऐसा लगा
सीधी-सादी सी राह है जैसे

हर किसी ने किया यहाँ सिजदा
आरजू खानकाह है जैसे

खौफ से हम सिमट गए इतना
कोई फरदे-तबाह है जैसे

पेश आता है यू अदावत से
वो मुखालिफ गवाह है जैसे

प्रवीण नाकाम

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2 टिप्पणियाँ: to “ हर तरफ़ आह आह है जैसे

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