हर तरफ़ आह आह है जैसे
बुधवार, 18 मार्च 2009
हर तरफ़ आह आह है जैसे
ये जहां कत्लगाह है जैसे
अब सदाकत गुनाह है जैसे
झूठ से ही निबाह है जैसे
इश्क की इब्तिदा में ऐसा लगा
सीधी-सादी सी राह है जैसे
हर किसी ने किया यहाँ सिजदा
आरजू खानकाह है जैसे
खौफ से हम सिमट गए इतना
कोई फरदे-तबाह है जैसे
पेश आता है यू अदावत से
वो मुखालिफ गवाह है जैसे
प्रवीण नाकाम
18 मार्च 2009 को 3:33 am बजे
बढ़िया प्रस्तुती । बधाई
18 मार्च 2009 को 3:54 am बजे
वाह ! हरेक शेर मुक्कम्मल काबिले दाद ! खूबसूरत ग़ज़ल पढ़वाने के लिए शुक्रिया !!