करब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है  

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

करब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है
पतझड़ में तो पात को आखर झड़ना पड़ता है

कब तक औरो के सांचे में ढलते जायेगे
किसी जगह तो हम को आखर अड़ना पड़ता है

सिर्फ़ अंधेरे से ही दिए की ज़ंग नही होती
तेज हवाओ से भी उस को लड़ना पड़ता है

सही सलामत आगे बड़ते रहने की खातिर
कभी-कभी तो ख़ुद भी पीछे हटना पड़ता है

जीवन जीना इतना भी आसान नही ' आजाद '
साँस-साँस में रेजा रेजा काटना पड़ता है

आजाद गुलाटी

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2 टिप्पणियाँ: to “ करब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है

  • नीरज गोस्वामी
    2 फ़रवरी 2009 को 2:07 am बजे  

    रचना के भाव बहुत प्रभावशाली हैं लेकिन इसे ग़ज़ल नहीं कह सकते ये एक स्वतंत्र रचना है...ग़ज़ल के मूल में काफिया की ध्वनि एक होनी चाहिए...यहाँ जो तुक मिलायी गई है वो एक सी नहीं है जैसे सहना और झड़ना यहाँ मूल शब्द सह और झड़ है जिनका स्वर एक सा नहीं.."ना" अतिरिक्त शब्द है...मुझे अधिक जानकारी तो नहीं क्यूँ की अभी मैं ख़ुद भी सीख ही रहा हूँ इसलिए अगर मेरी बात बुरी लगी हो क्षमा करें...
    नीरज

  • Rahul kundra
    2 फ़रवरी 2009 को 2:53 am बजे  

    नीरज जी आपने जो जानकारी दी उसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया. मुझे अपने वो बात कभी बुरी नहीं लगती जिस से कोई जानकारी मिले और जहां तक रही बात ग़ज़ल की तो ये ग़ज़ल आजाद गुलाटी जी की है मुझे तो इतना भी लिखना नहीं आता. फिर भी आप कभी मेरे दुसरे ब्लॉग "दुनिया मेरी नज़र से" को भी देखे और अपनी कीमती राए दे. शुक्रिया.

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