दिलरुबा, दिलदार-ओ-खुशदीदा न था
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
दिलरुबा, दिलदार-ओ-खुशदीदा न था,
शहर में कोई तेरे जैसा न था।
नाखुदाई का वो रुतबा ले गया,
उमर भर जो पानी में उतरा न था।
किशन ने कंकर बहुत फैंके मगर,
अब के राधा का घडा कच्चा न था।
खत्म कर बैठा है ख़ुद को भीड़ में,
जब तलक तनहा था वह मरता न था।
अक्स जाहिर था मगर था इक सराब,
नक्श धुंधला था मगर मिटता न था।
में जिया हो उस समंदर की तरह,
जिसकी किस्मत में कोई दरिया न था।
गर्द-आलूद आँख थी ' जाहिद ' मिरी
वरना आइना तो वो मैला न था।
4 फ़रवरी 2009 को 7:25 am बजे
अच्छी गजल है।