बैठ ले कुछ देर , आओ , एक पथ के पथिक से प्रिय , अंत और अनंत के , तम - गहन - जीवन घेर । मौन मधु हो जाए भाषा मुकता की आड़ में , मन सरलता की बाड़ में जल - बिन्दु - सा बह जाए । सरल , अति स्वछंद जीवन , प्रात के लघु पात से उत्थान - पतनाघात से रह जाए चुप , निर्द्वंद्व ।
सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला "
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सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला "
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कत्ल करके लग रहे वो बेखबर से लो हमी अब चल दिए है इस शहर से सीख कर आए कहाँ से ढंग नया तुम घर जलाते हो निगाहों के शरर से आंधिया - दर - आंधिया , हरसू अँधेरा बन गया माहोल कैसा इक ख़बर से टुकड़े टुकड़े हो चली है जिन्दगानी है परेशां आदमी अपने सफर से लिख रहा है हर किसी का वो मुकद्दर बच नही पाया कोई उसकी नज़र से
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सारे माहौल को जाने क्या हो गया जिंदा रहना भी अब तो सज़ा हो गया एक मगरूर तारा बहुत दिन हुए आसमानों से गिर कर फ़ना हो गया अब किनारों के मिलने की उम्मीद क्या दोनों जानब बड़ा फासला हो गया रात भर खेमा -ऐ -दिल में हलचल रही जाने बस्ती में क्या हादसा हो गया सारी दुनिया में जब उसका कोई नही वो मेरा हो गया तो क्या हो गया ठोकरे खाते खाते हर इक गाम पर अब तो 'महक ' उसको होसला हो गया
यासमीन महक
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यासमीन महक
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रहनुमा साथ छोड़ देता है रास्ता साथ छोड़ता ही नही नई तहजीब में पला बच्चा अब खिलोनो से खेलता ही नही सब की आखो में अश्क भर आए इक मेरा दर्द बोलता ही नही धुंधले चेहरों का उफ़ घना जंगल बच निकलने का रास्ता ही नही इख तला फात दूर हो कैसे वो मेरी तरह सोचता ही नही
यासमीन महक
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यासमीन महक
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आपसे प्यार होता जाता है कम दुश्वार होता जाता है अक्ल करती है जितनी तदबीरे इश्क बीमार होता जाता है कोई लग्जिश न यार हो जाए शौक आजार होता जाता है जिस कदर हाल - ऐ - दिल छुपाते है साफ इज़हार होता जाता है ज़ख्म - ऐ - एहसास की खलिश से ' अदम ' फूल भी खर होता जाता है
अब्दूल हमीद 'अदम'
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अब्दूल हमीद 'अदम'
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डूबते तारो ने क्या - क्या रंग दिखलाये हमें कुछ पुराने नक्श जो रह - रह के याद आए हमें किस में जुर्रत है की उतरे पानियों की दरमिया किस को ख्वाहिश है जो अब के रह पर लाये हमें हम यह क्या जाने की क्यो सब्रो सको जाता रहा तू जो इक दिन पास आ बैठे तो समझाए हमें रात भर छ्त पर हमें तारे सदा देते रहे रात भर कमरे में इक परछाई दहलाए हमें ख्वाब में डूबे तो फ़िर पाया न कुछ अपना सुराग किस को फुर्सत है जो ' पाशी ' ढूँढने आए हमें
कुमार पाशी
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कुमार पाशी
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होंठो पर सजा के अपने वो जो गुनगुना गई मुझको इक लफ्ज़ था भुला हुआ ग़ज़ल बना गई मुझको किस - किस तूफा के बीच से बचा लाया न दिल को अपने कितनी यकता वो निगाहे हुस्न , जोकि पा गई मुझको न किसी की याद , कोई खुशी न कोई रंज - ओ - गम यह किस मुकाम पर हयात ले कर आ गई मुझको जामे मीना हो की रूखे अख्तर सबसे बचता था इससे पेश्तर क्या कह दिया यार ने की नसीहत आ गई मुझको जो लोग पूछते है मुझसे वजूहात दीवानगी की ' साहिर ' देखता हो की इक महजबी की अदा आ हाई मुझको
साहिर अम्बालवी
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साहिर अम्बालवी
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अब आँखों में नही सैलाब कोई मुझे लौटा दे मेरे ख्वाब कोई अजब मजबूरिया थी चुप रही मै मुझे करता रहा आदाब कोई मै तूफानों से बचना चाहती थी मगर दरिया न था पायाब कोई
नसीम निकहत
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नसीम निकहत
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कभी करीब कभी दूर हो के रोते है मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते है
अजहर इनायती
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अजहर इनायती
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यही नही की सदाए लगा के देखते है कुए में कौन है पत्थर हटा के देखते है गुलाम अब न हवेली से आयेगे लेकिन हुजुर अब भी ताली बजा के देखते है अजाफा होता है कितना हमारी इज्ज़त में रईस -ऐ -शहर को घर पर बुला कर देखते है
अजहर इनायती
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अजहर इनायती
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फ़िर अजनबी फिजाओ से जोड़ा गया मुझे मै फूल थी जो शाख से तोडा गया मुझे मिटटी के बर्तनों की तरह साडी जिंदगी तोडा गया मुझे कभी जोड़ा गया मुझे हाथो में सौप कर मेरे कागज़ की एक नाव दरिया के तेज़ धार पर छोडा गया मुझे खुशबू की तरह जीना भी आसान तो नही फूलो से कतरा - कतरा निचोडा गया मुझे मै ऐसी शाख थी जो लचकती न थी कभी फूलो का बोझ डाल कर मोडा गया मुझे मुदत के बाद आँख लगी थी मगर ' नसीम ' ख्वाबो में सारी रात झिंझोडा गया मुझे
नसीम निकहत
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नसीम निकहत
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कही ऐसा न हो दामन जला लो हमारे आसूओं पर खाक डालो मानना भी ज़रूरी है तो फ़िर तुम हमें सब से खफा हो के माना लो बहुत रोई हुई लगती है ये आँखे मेरी खातिर ज़रा काजल लगा लो अकेलेपन से खौफ़ आता है मुझको कहाँ हो मेरे ख्वाबो खयालो बहुत मायूस बैठा हु मै तुमसे कभी आकर मुझे हैरत में डालो
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चाँद है अफताब है यह लोग जिंदगी का निसाब है यह लोग देख इनकी दराज जुल्फों को रहमतों का सहाब है यह लोग ऐसे चलते है जिस तरह चश्मे जमजमे है , ख्वाब है यह लोग लोग और इतने गुलबदन तौबा क्या सराया गुलाब है यह लोग लोग और वाकई हसी इतने वाकिया है की ख्वाब है यह लोग
अदम
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अदम
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ज़ख्मो को न आँचल से हवा दो गर कुछ दे सकते हो वफ़ा दो गरीब के बीमार बच्चे को रोटी दो न की दवा दो बेशर्म हो चली जिंदगी पर रहम करो रहनुमाओ , हया दो तानाशाही में कुचलते आदमी को हा ! आम आदमी को जुबा दो विद्रोह कर उठे जुलम के खिलाफ उसे हिम्मत दो न की सज़ा दो
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जो यह शर्ते - तालुक है की है हम को जुदा रहना तो ख्वाबो में भी क्यो आओ , खयालो में भी क्या रहना शज़र ज़ख्मी उम्मीदों की अभी तक लहलहाते है इन्हे पतझड़ के मौसम में भी आता है हरा रहना पुराने ख्वाब पलकों से झटक दो , सोचते क्या हो मुकदर खुशक पतों का है शाखों से जुदा रहना अजब क्या है अगर ' मखमूर ' तुम पर यू रशे - गम है हवाओ की तो आदत है चिरागों से खफा रहना
मखमूर सय्य्दी
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मखमूर सय्य्दी
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अबादतो की तरह मै यह काम करता हूँ मेरा उसूल है पहले सलाम करता हूँ मखालफत से मेरी शख्सियत सवरती है मै दुश्मनों का बड़ा एहेतराम करता हूँ मै अपनी जेब में अपना पता नही रखता सफर में सिर्फ़ यही एह्तमाम करता हूँ मै डर गया हूँ बहुत सायादार पेडो से ज़रा सी धुप बिछा कर कयाम करता हूँ मुझे खुदा ने ग़ज़ल का दयार बख्शा है यह सल्तनत मै मोहब्बत के नाम करता हूँ
डा . बशीर बदर
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डा. बशीर बदर
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डूब गई जिंदगी क्यो ज़हर में होता कोई अपना इस शहर में चांदनी के पंख कट गए होंगे इतना अँधेरा न था इस दहर में यह मौसम पगला गया कैसे धुल एक भी नही इस शज़र में सर पिटती रही होंगी हवाए डूब गया सितारा किस नज़र में यह अचानक कारवा को क्या हुआ रोने की बात न थी इस सफर में कटेगा कैसे यह अँधेरा दोस्तों चाँद छोड़ गया बिच डगर में
अशोक प्लेटो
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मुझको उस शाखे गुल से प्यार नही जिस पे बस गुल ही गुल हो खार नही मौत का ऐतबार है मुझको जिंदगी तेरा ऐतबार नही दोस्त दुश्मन सभी तो छोड़ गए अब किसी का भी इन्तिज़ार नही रुसवा हो जाता वरना दुनिया में बच गया कोई राजदार नही कट ही जायेगी जिंदगी ऐ अश्क गम न कर कोई गम गुसार नही
अश्क अम्बालवी
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वह जान के भी अनजान बना रहा दिलो का फासला सुनसान बना रहा कितना जाहिल निकला मेरा दोस्त रकीब के घर मेहमान बना रहा यह कैसी मोहबत है अजनबी ज़ख्म भर गया निशान बना रहा सैलाब में डूब गया शहर लेकिन पत्थर का बुत भगवान बना रहा न लुना न इच्छरा न पूरण भगत ख्वाब फ़िर भी सलवान बना रहा
अशोक प्लेटो
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कैसे कैसे हादसे सहते रहे फ़िर भी जीते रहे हसते रहे उसके आ जाने की उम्मीदे लिए रास्ता मुड -मुड के हम तकते रहे वक्त तो गुजरा मगर कुछ इस तरह हम चिरागों की तरह जलते रहे कितने चेहरे थे हमारे आस -पास तुम ही तुम दिल में मगर बसते रहे
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या तो मिट जाइये या मिटा दीजिये कीजिये जब भी सौदा खरा कीजिये अब जफा कीजिये या वफ़ा कीजिये आखिरी वक्त है बस दुआ कीजिये अपने चेहरे से जुल्फे हटा दीजिये और फ़िर चाँद का सामना कीजिये हर तरफ़ फूल ही फूल खिल जायेगे आप ऐसे ही हसते रहा कीजिये आप की ये हसी जैसे घुंघरू बजे और क़यामत है क्या ये बता दीजिये
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दोस्ती जब किसी से की जाए दुश्मनों की भी राय ली जाए मौत का ज़हर है फिजाओ में अब कहा जाके साँस ली जाए बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ ये नदी कैसे पर की जाए मेरे माजी के ज़ख्म भरने लगे आज फ़िर कोई भूल की जाए बोतले खोल के तो पी बरसो आज दिल खोल के पी जाए
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चेहरों पर चेहरे लगाते है लोग हस कर गम को छिपाते है लोग मिलने -जुलने वालो की भीड़ में कुछ ही साथ निभाते है लोग सुकून देते है जो साथ रह कर जाने पर कसक दे जाते है लोग जिक्र जब होता है बीते लम्हों का याद बहुत आते है लोग ग़ज़ल में ढाली है हकीकत ' सर ' ने तभी तो बहुत सरते है लोग
नाहादिया सर
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तनहा चला हूँ मै रहगुज़र में भटक न जाऊ कही सफर में दिल चिराग बन के जला है अब तो चले आओ मेरे घर में कोई न सुने फरियाद मेरी पत्थर ही मिले है तेरे शहर में कहते हो तुम की खुदा याद रखू तुम ही खुदा हो मेरी नज़र में गुलो की थी उम्मीद उससे ' दयाल 'खर बिखेर दिए जिसने डगर में
राम दयाल
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धुप छ्त पर जब चडी होगी चांदनी पिछवाडे खड़ी होगी झिलमिला उठी अँधेरी रात हाथ बच्चे के फुलझडी होगी पहाडी रात को दौड़ गई आँख चाँद से जा लड़ी होगी गाड़ी सिग्नल पर खड़ी होगी कैसी इन्तिज़ार की घड़ी होगी
अशोक प्लेटो
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ऐ बशर ! ऐ बशर ! ऐ बशर !काम कर , काम कर ,काम कर बे खतर , बे खतर . बे खतर बे समर, बे समर, बे समर, खौफ है तुझको किस बात का ? खाक है ये सरापा तेरा असलियत है तेरी आत्मा मौत से जो न होगी फ़ना
जिगर जालंधरी
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आदमी आदमी को क्या देगा जो भी देगा इसे खुदा देगा जितना देगा तू उसके बन्दों को वो तुम्हे उससे भी सवा देगा जब दुआ में तेरी असर ही नही बद्दुआ तू किसी को क्या देगा दाग कितने है तेरे चेहरे पर आइना देख सब दिखा देगा छोड़ कर मुझको इतना खुश न हो उमर भर दुःख ये हादिसा देगा जिंदगी दी है जिसने 'अश्क ' मुझे जीने का भी वो हौसला देगा
अश्क अम्बालवी
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अश्क अम्बालवी
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बाहर से यारी भीतर मनमुटाव है यहाँ के चलन का अजब रख -रखाव है छोड़ जाए महफिल तो भूल जाते है लोग अपनों का अपनों पर ऐसा ही घाव है अनेको तूफान तो सतह पर खामोश है समंदर में लगता बहुत गहरा तनाव है तन्हा हुए इश्क में दुनिया से बेखबर ठोकरे खाई बेशुमार फ़िर भी झुकाव है जितना भी सहा जाए उतना ही मज़ा आए ऐसे मेरे कातिल का मुझ पर कसाव है सांसो की आंच पकती ही जाती है बेखबर सीने में जैसे मेरे कोई जलता अलाव है
भोला वाघमरे
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ये आलम शौक का देखा न जाए वो बुत है या खुदा देखा न जाए ये मेरे साथ कैसी रौशनी है के मुझसे रास्ता देखा न जाए ये किन नजरो से तुने आज देखा की तेरा देखना देखा न जाए हमेशा के लिए मुझसे बिछ्डा जा ये मंज़र बारहा देखा न जाए ग़लत है जो सुना , पर आजमा कर तुझे ऐ बेवफा देखा न जाए ये महरूमी वही पासे -वफ़ा है कोई तेरे सिवा देखा न जाए यही तो आशना बनते है आख़िर कोई न आशना देखा न जाए फ़राज़ अपने सिवा कौन है तेरा तुझे तुझ से जुदा देखा न जाए
अहमद फ़राज़
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मायूस हो तेरी महफिल से कोई फ़िर गया रात के आँचल से एक सितारा झर गया एक लम्हे के लिए उमर भर बैठा रहा और फ़िर वो शख्स न जाने किधर गया तमाम रास्ते दौड़ता अकेला कम्बखत दरिया पहाड़ छोड़ सीधा समंदर गया चोगान में आग बुझाये बैठा है काफिला रास्ता जिसका सेहरा की रेत से भर गया ' प्लेटो ' पूछता रहा उससे पता अपना बुलबुल बोली ' जिप्सी भी कभी घर गया '
अशोक प्लेटो
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बाहर से मुझे नफरत थी , पर दिल में मेरे बसता था वो पागल - सा इक लड़का , जो देख के मुझको हसता था क्यो ठुकराया मांग को उसकी , सोच के अब पछताती हूँ दिल के बदले दिल माँगा था , सोदा कितना सस्ता था किस्से पूछू कैसे पूछू , क्यों नही देता अब वो दिखाई रोज़ गुजरता था वो इधर से , उसका ये ही रस्ता था तुमने छोड़ा मुझको मैंने शहर तुम्हारा छोड़ दिया घूरती थी हर शक्स की नज़रे , हर कोई मुझ पर हसता था दर्द छुपाकर जीना उसकी , 'अश्क ' पुरानी आदत थी भीतर -भीतर रोता था वो , बाहर -बाहर हसता था
अश्क अम्बालवी
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जिंदा लबो पे ये ताले कैसे ये जलसा गुंगो के हवाले कैसे चोटी तक पहुचा ज़हर तो एहसास हुआ ये साँप आस्तीन में हमने पाले कैसे घर से नही निकले जो लोग अभी तलक ताज्जुब है उनके पैरो में छाले कैसे जूते और टोपी में ताल्लुक ठीक नही कोई शख्स इरादों को संभाले कैसे सिक्के के दोनों पहलू एक ही जैसे है हवाओ में इसको कोई उछाले कैसे सुना है फुटपाथ पे खुदा सोता है इस सहर में मस्जिद ये शिवाले कैसे
सनम दहिया
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सनम दहिया
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